- के रवींद्रन
धन की अवैध कमाई या वैध कमाई से अधिक धन रखने के खिलाफ कानून ज्यादातर कानून के शासन को सुनिश्चित करने के बजाय विरोधियों के साथ बदला लेने के लिए लागू किया जाता है। इसके विपरीत, यह हमेशा कानून के शासन को खत्म करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे कई उदाहरण हैं जब रातों-रात कानून का सत्ताधारी पार्टी के दोस्त से दुश्मन बने लोगों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया है।
यह कोई मजाक नहीं है कि भारतीय कानूनों के तहत किसी को कभी भी, कहीं भी घसीटा जा सकता है, क्योंकि कुछ कानून ऐसे हैं, जिन्हें किसी के खिलाफ कभी भी लगाया जा सकता है, जिसके प्रति अधिकारी द्वेष रखते हों। वास्तव में ये कानून शासकों के हाथों दमन और प्रतिशोध के साधन बन गये हैं। उन कानूनों में शामिल हैं अश्लीलता पर प्रतिबंध लगाने से लेकर वैध साधनों से अधिक संपत्ति अर्जित करने तक के कानून।
अश्लीलता के खिलाफ कानून के अधीन जो कोई भी सार्वजनिक रूप से अपमानजनक और अश्लील कार्य करता है या कहता है उसे दंडित किया जाता है, लेकिन 'अश्लील' शब्द को कहीं भी सुस्पष्ट तरीके से परिभाषित नहीं किया गया है। इसलिए ऐसा कुछ भी नहीं है जो कानून लागू करने वाले को किसी के भी विरूद्ध कानूनी कार्रवाई शुरू करने से रोकता हो। फिर जिसके खिलाफ कार्रवाई की जाती है उस अभियुक्त के पास भी अपने बचाव के लिए बहुत कुछ उपलब्ध नहीं होता।
धन की अवैध कमाई या वैध कमाई से अधिक धन रखने के खिलाफ कानून ज्यादातर कानून के शासन को सुनिश्चित करने के बजाय विरोधियों के साथ बदला लेने के लिए लागू किया जाता है। इसके विपरीत, यह हमेशा कानून के शासन को खत्म करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे कई उदाहरण हैं जब रातों-रात कानून का सत्ताधारी पार्टी के दोस्त से दुश्मन बने लोगों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया है और हम सभी इस बात से परिचित हैं कि केंद्रीय एजेंसियों को डराने-धमकाने के लिए कैसे खुला छोड़ दिया गया है।
कोई यह नहीं पूछता कि उस समय कानून लागू क्यों नहीं किया जाता जब अभियुक्त कानून लागू करने वालों के 'गुड बुक' में होते हैं, हालांकि कथित तौर पर अपराध निर्बाध जारी रखा जाता है। बीबीसी के खिलाफ 'छापे' पूरी तरह से इसी श्रेणी में आते हैं। मोदी सरकार का दावा है कि यह छापा नहीं, बल्कि सर्वे है। इसका जो भी मतलब हो, पर आम आदमी इसे ही छापा समझता है। आयकर अधिनियम में 'छापे' शब्द का कोई उल्लेख नहीं है। लेकिन आईटी अधिनियम की धारा 132 के तहत, अधिकारियों को परिसर और व्यवसाय के स्थानों का पूरी तरह से निरीक्षण करने और दस्तावेजों, कंप्यूटर और उपकरणों, संपत्ति और कुछ भी जो छुपाया गया है, को जब्त करने का अधिकार है। इसमें से कोई भी कार्रवाई को तकनीकी तौर पर छापा नहीं कहा जा सकता, भले ही पीड़ित पक्ष कुछ भी महसूस करे।
आयकर अधिकारियों ने बीबीसी के दिल्ली और मुंबई कार्यालयों सहित कई स्थानों पर छापे मारे, या तलाशी ली, जैसा कि सरकार हमें विश्वास दिलाती है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, बीबीसी के कर्मचारियों को एक निश्चित स्थान पर ले जाया गया और उनको फोन, लैपटॉप और अन्य साजोसामान सौंपने का आदेश दिया गया। किसी को भी कार्यालयों से जाने या उनमें प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी।
बीबीसी ने किसी भी गलत काम करने से इन्कार किया है और कहा है कि वह अधिकारियों के साथ पूरा सहयोग कर रहा है। सरकार के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय प्रसारक बीबीसी ट्रांसफर प्राइसिंग रूल्स (टीपीआर) के प्रावधानों का उल्लंघन कर रहा है, जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा उत्पन्न मुनाफे के लेखांकन से संबंधित है। आईटी विभाग का दावा है कि बीबीसी द्वारा वर्षों से लगातार नियमों का अनुपालन नहीं किया जा रहा है और ब्रॉडकास्टर इस संबंध में लगातार विभाग द्वारा जारी नोटिसों की अवहेलना कर रहा है।
तो बड़ा सवाल यह है कि अधिकारी इतने समय तक चुप क्यों रहे और बीबीसी द्वारा नरेंद्र मोदी के खिलाफ 'आपत्तिजनक' धारावाहिक चलाने के बाद ही क्यों जागे? किसी के लिए यह उचित मामला है कि वह संबंधित आईटी अधिकारियों द्वारा कर्तव्य में लापरवाही पर सवाल उठाते हुए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाये और यह पता लगाये कि क्या किसी सौदे के तहत उनकी ओर से कोई मिलीभगत थी? अधिकारियों को आईटी नियमों को लागू न कर देश के कर राजस्व के नुकसान के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।
इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि पूरे विवाद में सरकार और भाजपा गलत तरीके से फंस गये हैं। ऐसे कई बीबीसी वृत्तचित्र हैं जो विश्व नेताओं की आलोचना करते हैं, लेकिन प्रारंभिक उत्साह के बाद ये स्वाभाविक रूप से मर जाते हैं। लेकिन अति उत्साही मोदी के वफादारों ने शो को उससे कहीं अधिक महत्व दिया है, जितना वह अन्यथा योग्य होता। शो के साथ उनके जुनून ने यह सुनिश्चित किया है कि इसे देखने के प्रति लोगों में और अधिक जिज्ञासा उत्पन्न हो तथा अपील बनी रहे। परिणामस्वरूप ब्रॉडकास्टर की अपेक्षा से अधिक लोगों ने अब तक इसे देखा होगा।
लोगों द्वारा इसे देखे बिना भी, विवाद ने मोदी के लिए नकारात्मक प्रचार पैदा किया और वफादारों की हताशा की ओर वैश्विक ध्यान आकर्षित किया। विपक्ष ने पहले ही मोदी सरकार पर अघोषित आपातकाल लागू करने और आलोचना को दबाने के लिए डराने-धमकाने की रणनीति का सहारा लेने का आरोप लगाया है। एमनेस्टी इंटरनेशनल के साथ 'प्रेस की स्वतंत्रता के घोर अपमान' पर चिंता व्यक्त करने के साथ यह मुद्दा एक वैश्विक विवाद में बदल गया है।
आयकर विभाग की अत्यधिक शक्तियों को बार-बार सरकार के विरूद्ध असंतोष को दबाने के लिए हथियार बनाया जा रहा है। पिछले साल कर अधिकारियों ने ऑक्सफैम इंडिया सहित कई गैर सरकारी संगठनों के कार्यालयों पर भी छापा मारा था। एमनेस्टी इंटरनेशनल के इंडिया बोर्ड के अध्यक्ष आकार पटेल ने एक बयान में कहा कि, भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को कमजोर करने वाली ये धमकाने वाली हरकतें अब समाप्त होनी चाहिए।
अमेरिकी अखबार वाशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स और अन्य ने छापे के लिए चुने गये समय को समुचित नहीं बताया और 2002 में अपने गृह राज्य गुजरात को तबाह करने वाले घातक सांप्रदायिक दंगों में मोदी की अपनी कथित कुख्यात भूमिका की और इंगित भी किया। अमेरिकी सरकार ने स्वयं सुनिश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा परन्तु इतना अवश्य कहा कि वह घटनाक्रम से अवगत है, लेकिन इस बाबत वह अभी कुछ कहने की स्थिति में नहीं है। शुद्ध परिणाम यह है कि मोदी की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता को होने वाली कथित क्षति बीबीसी शो द्वारा होने वाली क्षति की तुलना में कई गुना अधिक है।